Contents
प्राचीन समय की बात है। भारत में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा प्रतापी तथा दानी था। वह नित्यप्रति मन्दिर में भगवतूदर्शन करने जाता था। वह बांह्मण और गुरु की सेवा किया करता था। उसके द्वार से कोई भी याचक निराश होकर नहीं लौटता था। वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन वास्ता था। हर दिन गरीबों की सहायता करता था। परन्तु यह सब बातें उसकी रानी को अच्छी नहीं लगती थी, वह न व्रत करती और न किसी को एक भी पैसा दान में देती थी। वह राजा से भी ऐसा करने को मना किया करती थी। एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए। घर पर रानी और दासी थी। उस समय भगवान बृहस्पति देव साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा माँगने आये। साधु ने रानी से भिक्षा माँगी तो वह कहने लगी... "है साधु महाराज! मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ। इस कार्य के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहूत हैं। अब आप ऐसी कृपा करें कि सारा धन नष्ट हो जाए तथा पैं आराम से रह सकूँ।"
साधु रूपी बृहस्पतिदेव ने कहा... "हे देवी! तुम बडी विचित्र हो। सन्तान और धन से कोई दुखी नहीं होता है, इसको सभी चाहते हैं। पापी भी पुत्र और धन की इदृछा करता है। अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगचाओ, ब्राह्मणों को दान दो, धर्मशालाएँ बनचाओ, कुआँ-तालाब, चावडी-चाग-बगीचे आदि का निर्माण कराओ तथा निर्धनों की कुँआरी कन्याओँ का विवाह कराओ, साथ ही यज्ञादि करो। इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल का और आपका नाम परलोक में भी सार्थक होगा एवं तुम्हें भी स्वर्ग की प्राप्ति होंगी।" परन्तु रानी साधु की इन बातों से खुश नहीं हूई।
उसने कहा- "हे साधु महाराजा मुझें ऐसे धन की आवश्यकता नहीं जिसको मैं अन्य लोगों को दान देती फिरू तथा जिसको रखने और सम्हालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाए।"
साधु ने कहा... "हे देवी! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूँ तुम वैसा ही करना। बृहस्पतिवार के दिन घर आंगन को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली-मिटूटी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, रांजा से कहना वह हजामत करवाए, भोजन मेँ मांस-मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहाँ घुलने देना। इस प्रकार सात बृहस्पतिवार करने से तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा।" यह कहकर साधु महाराज रूपी बृहस्पतिदेव अन्तर्धान हो गए। रानी ने साधू के कहने के अनुसार सात बृहस्पतिवार तक वैसा ही करने कर विचार किया। साधु के बताए अनुसार कार्यं करते हुए केवल तीन बृहस्पतिवर ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-सम्यत्ति नष्ट हो गईं। भोजन के लिए दोनों समय परिवार तरसने लगा तथा सांसारिक भोगों से दुखी रहने लगा। तब राजा रानी से कहने लगा कि हे रानी! तुम यहाँ पर रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ। क्योकि यहां पर मुझें सभी मनुष्य जानते हैँ, इसलिए मैं यहाँ पर कोई काम नहीं कर सकता। मैं अब परदेश जा रहा हूँ। वहाँ कोईं काम…धन्धा कर लूंगा। शायद हमारे भाग्य बदल जाएँ। ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वह वहाँ जंगल से लकडी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह जीवन व्यतीत करने लगा।
इधर राजा के बिना रानी और दासियाँ दुखी रहने लगीं। किसी दिन एक समय भोजन मिलता और किसी दिन जल पीकर ही रह जातीं। एक समय रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के व्यतीत करने पड़े, तो रानी ने अपनी दासी से कहा..."हे दासी! यहां पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है। वह बड़ी धनवान है। तू उसके पास जा और वहाँ से पांच सेर बेझर मांगकर ले आ, जिससे कुछ समय के लिए गुजारा हो जायेगा।" दासी रानी की बहन की पास गई। रानी की बहन उस समय पूजा कर रही थी। ब्रहस्पतिवार का दिन था। दासी ने रानी की बहन से कहा... "हे रानी! मुझे आपकी बहन ने भेजा है। मुझे पांच सेर बेझर दे दो।" दासी ने यह बात अनेक बार कही, परन्तु रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि वह उस समय ब्रहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई। उसे क्रोध भी आया। वह लौटकर रानी से बोली... "हे रानी! आपकी बहन बहुत ही घमंडी है। वह छोटे लोगों से बात भी नहीं करती। मैंने उससे कहा तो उसने कोई उत्तर नहीं दिया, मैं वापस चली आई।"
रानी बोली... "हे दासी! उसका कोई दोष नहीं है जब बुरे दिन आते हैं तब कोई सहारा नहीं देता। अच्छे-बुरे का पता विपत्ति में ही लगता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी वही होगा। यह सब हमारे भाग्य का दोष है। उधर रानी की बहन ने सोचा की मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु में उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी। अतः कथा सुन और विष्णु भगवान का पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी... "हे बहन! मैं ब्रहस्पतिवार का व्रत कर रहीं थी। तुम्हारी दासी हमारे घर गयी थी, परन्तु जब तक कथा होती है तब तक हम लोग न उठते हैं और न बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। कहो, दासी क्यों गयी थी?"
रानी बोली... "बहन! हमारे घर में अनाज नहीं था। वैसे तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। इस कारण मैंने दासी को तुम्हारे पास पांच सेर बेझर लेने के लिए भेजा था।"
रानी की बहन बोली... "बहन देखो! ब्रहस्पति भगवान् सबकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। देखो, शायद तुम्हारे घर में ही अनाज मिल रखा हो।" यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिल गया। उसे बड़ी हैरानी हुई, क्योंकि उसने एक-एक बर्तन देख लिया था। उसने बहार आकर रानी को बताया। दासी अपनी रानी से कहने लगी... "हे रानी! देखो, वैसे हमको जब अन्न नहीं मिलता तो हम रोज ही व्रत करते हैं। अगर इनसे इस व्रत की विधि और कथा पूछ ली जाये तो उसे हम भी कर लिया करेंगे।"
दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया... "हे रानी! बृहस्पतिवार को सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करके बृहस्पतिवार का व्रत करना चाहिए। लेकिन उस दिन सर नहीं धोना चाहिए। बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान को केले के वृक्ष की जड़ से पूजन करें तथा दीपक जलावें। उस दिन एक ही समय भोजन करें। भोजन पीले खाद्य पदार्थ का करें तथा कथा सुनें। इस प्रकार करने से गुरु भगवान प्रसन्न होते हैं। अन्न, पुत्र, धन देते हैं। इस तरह व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट गई।
रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वे बृहस्पति देव भगवान का पूजन जरूर करेंगी। सात दिन बाद जब बृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा। घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाई तथा उसकी डाल से केले की जड़ में विष्णु भगवान का पूजन किया। अब भोजन कहां से आए। दोनों बड़ी दुखी हुई परन्तु उन्होंने व्रत किया था इस कारण ब्रहस्पति देव भगवान प्रसन्न थे। वे एक साधारण व्यक्ति के रूप में दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आये और दासी को देकर बोले - "हे दासी! यह भोजन तुम्हारे और रानी के लिए है, तुम दोनों करना।"
दासी भोजन पाकर बड़ी प्रसन्न हुई और रानी से बोली... "रानी जी, भोजन कर लो।" रानी को भोजन आने के बारे में कुछ पता नहीं था इसलिए वह दासी से बोली... "जा, तू ही भोजन कर क्योंकि तू हमारी व्यर्थ में हंसी उड़ाती है।" दासी बोली... "एक व्यक्ति अभी भोजन दे गया है।" रानी कहने लगी... "वह भोजन तेरे ही लिए दे गया है, तू ही भोजन कर।" दासी ने कहा... "वह व्यक्ति हम दोनों के लिए दो थालों में भोजन दे गया है। इसलिए मैं और आप दोनों ही साथ-साथ भोजन करेंगी।" फिर दोनों ने गुरु भगवान को नमस्कार कर भोजन प्रारम्भ किया।
उसके बाद से वे प्रत्येक ब्रहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगीं। ब्रहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया। परन्तु रानी फिर पहले की तरह से आलस्य करने लगी। तब दासी बोली... "देखो रानी! तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हे धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया। अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हे आलस्य होता है? बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है। इसलिए हमें दान-पुण्य करना चाहिए। तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राह्मणों को दान दो, कुआँ-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण करवाओ, मंदिर-पाठशाला बनवाकर दान दो, कुँवारी कन्याओ का विवाह करवाओ, धन को शुभ कार्यो में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्र प्रसन्न हों।" दासी की बात मानकर रानी ने इसी प्रकार के कर्म करने प्रारम्भ किये, जिससे उनका काफी यश फैलने लगा।
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगें, उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है। उन्होंने श्रद्घापूर्वक गुरु (वृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहाँ कहीं भी हो, शीघ्र वापस आ जाएं।
उधर, राजा परदेश में बहुत दुखी रहने लगा। वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता। एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया।
उसी समय राजा के पास वृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले... "हे लकड़हारे। तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ।" यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया। साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी। महात्मा दयालु होते है। वे राजा से बोले... "हे राजा तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई। अब तुम चिन्ता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें। देखो, तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है। अब तुम भी वृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो। फिर कथा कहो या सुनो। भगवान तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगें।" साधु की बात सुनकर राजा बोला... "हे प्रभो। लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा भी नहीं बचता, जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं। मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है। मेरे पास कोई साधन नही, जिससे उसका समाचार जान सकूं। फिर मैं कौन सी कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है।" साधु ने कहा... "हे राजा। मन में वृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्चय करो। वे स्वयं तुम्हारे लिये कोई राह बना देंगे। वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाना। तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा। जो तुमने वृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है"-
बृहस्पतिवार व्रत कथा
प्राचीन कल में एक ब्राह्मण था, वो बहुत ही निर्धन था उसके कोई भी संतान नहीं थी। उसकी स्त्री बहुत ही मलिनता के साथ रहती थी वो न तो स्नान करती और न ही किसी देवता का पूजन करती। इस कारण ब्राहमण देवता बहुत दुखी रहते थे। बेचारे बहुत कुछ कहते थे किन्तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला।
भगवान की कृपा से ब्राहमण के घर में एक कन्या का जन्म हुआ। कन्या समय के साथ बड़ी होने लगी। वह कन्या प्रातः काल में ही स्नान करके भगवान विष्णु का जप करती थी। कन्या ने ब्रहस्पतिवार का व्रत भी नियमपूर्वक करना प्रारम्भ कर दिया। पूजा पाठ समाप्त होने पर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती। लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती। एक दिन वह कन्या सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी कन्या की मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी! सोने के जौ को फटकने के लिये तो सोने का सूप भी होना चाहिये।
दूसरे दिन ब्रहस्पतिवार था। कन्या ने व्रत रखा और ब्रहस्पति देव से प्रार्थना की कि हे ब्रहास्पतिदेव मुझे सोने का सूप दे दो। ब्रहास्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई। पाठशाला से लौटकर जब वह नित्य की भांति जौ बीन रही थी तो ब्रहास्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मार्ग में पड़ा मिला। उस सोने के सूप को वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी। परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा। एक दिन की बात है जब कन्य सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय जिस नगर में कन्या और उसका परिवार रहता था उसी नगर का राजकुमार उसके घर के पास से निकला। कन्या के रंग और रुप को देखकर वह कन्या पर मोहित हो गया। जब वह अपने राजमहल में आया तो वह बहुत उदास हो गया और बिना भोजन किये ही लेट गया। राजा को जब राजकुमार द्वारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह राजकुमार के पास गया और पूछा की हे पुत्र तुम्हे किस बात का दुःख है और तुमने भोजन क्यों त्याग दिया है। राजकुमार ने बोला ही पिता श्री मुझे किसी बात का दुःख नहीं है परन्तु मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हु जो सोने के सूप में सोने के जौ साफ़ कर रही थी| राज ने कहा की राजकुमार आप उस कन्या का नाम और पता बताओ मैं निश्चित रूप से तुम्हारा विवाह उसी कन्या से करवा दूंगा। राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता बता दिया। मंत्री उस लड़की के घर गया। मंत्री ने ब्राहमण के समक्ष राजा की ओर से निवेदन किया। कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गया।
कन्या के घर से जाते ही ब्राहमण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया। अब भोजन के लिए अन्न भी बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुखी होकर ब्राहमण अपनी पुत्री से मिलने गये। बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा. ब्राहमण ने सभी हाल कह सुनाया। कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया। ब्राहमण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहा| पुत्री बोली- हे पिताजी! आप माताजी को यहाँ ले आइये। मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे आपकी सारी गरीबी दूर हो जाएगी। ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी- हे मां! तुम प्रातःकाल स्नानादि करके भगवान विष्णु की पूजा करो तो घर की सब दरिद्रता और कष्ट दूर हो जाएगी। परन्तु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी। वह पहले की तरह ही प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बची झूठन को खा लेती थी।
एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कोठरी में बंद कर दिया। प्रातः काल में अपनी माँ को कोठरी से बाहर निकालकर स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्घि ठीक हो गई। इसके बाद उसकी माँ भी नियम से नित्य पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत करने लगी। इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को गई। वह ब्राहमण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ। इस तरह कहानी कहकर साधु बने देवता वहाँ से लोप हो गये।
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वृहस्पतिवार का दिन आया। राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया। उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला। लकडहारा बने राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर ब्रहस्पतिवार का व्रत किया। उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए। परन्तु जब अगले ब्रहस्पतिवार का दिन आया तो लकडहारा बना राजा ब्रहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया। इस कारण ब्रहस्पति भगवान नाराज हो गए। उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी राजमहल में भोजन करने आवें। कोई अपने घर में खाने के लिए चूल्हे न जलावें। इस आज्ञा को जो नहीं मानेगा उसको फांसी दे दी जाएगी।
राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसलिये राजा उसको अपने साथ महल में ले गए। जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर रानी का हार लटका हुआ था। उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया। रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है। उसी समय सैनिक बुलवाकर लकडहारे को जेल में डलवा दिया।
लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और जंगल में मिले उस साधु को याद करने लगा। उसी समय ब्रहस्पतिदेव साधु के रुप में प्रकट हो गए और कहने लगे, अरे मूर्ख! तुमने ब्रहस्पति देव का व्रत और पूजा नहीं की और सुख में उन्हें भूल गए, इसी कारण तुझे यह दुख प्राप्त हुआ है। अब चिन्ता मत कर। ब्रहस्पतिवार के दिन जेल खाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे, उनसे तुम ब्रहस्पतिवार की पूजा करना तो तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे।
अगले ब्रहस्पतिवार उसे जेल के द्वार पर चार पैसे मिले। राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा। उसी रात्रि में ब्रहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा के स्वप्न में आकर उससे कहा, हे राजा! तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना, वह निर्दोष है। राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर उस लकडहारे से क्षमा मांगी और लकडहारे बने राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया।
उस साधु की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया। राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब, कुएं और बहुत-सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बने हुए थे। राजा ने नगर के एक व्यक्ति से पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है? तब नगर के उस व्यक्ति ने बताया कि यह सब इस राज्य की रानी और दासी द्वारा बनवाये गए है। राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा।
जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे है तो उसने अपनी दासी से कहा- हे दासी! देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गये थे। वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं, इसलिये तू दरवाजे पर खड़ी हो जा। रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई। तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, बताओ, यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है। तब रानी ने सारी कथा कह सुनाई।
राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहा करुंगा और रोज व्रत किया करुंगा। अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता। एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आऊं। इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे है। उन्हें रोककर राजा कहने लगा, अरे भाइयो। मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो। वे लोग बोले, लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु कुछ आदमी बोले, अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगें। राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरु कर दी। जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया।
राजा आगे बढ़ा। उसे चलते-चलते शाम हो गई। आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला। राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना। राजा आगे चल पड़ा। राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जोर से दर्द होने लगा। उसी समय किसान की मां रोटी लेकर आई। उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा। बेटे ने सभी हाल बता दिया। बुढ़िया दौड़-दौड़ी उस घुड़सवार के पास पहुँची और उससे बोली, मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना। राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया।
राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया। बहन ने भाई की खूब मेहमानी की। दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे है। राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो। जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले। बहन बोली, हे भैया यह देश ऐसा ही है यहाँ लोग पहले भोजन करते है, बाद में कोई अन्य काम करते है। फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था। उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा। वह तैयार हो गया। राजा ने जाकर ब्रहस्पतिवार की कथा कही। जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया। अब तो राजा की पूरे राज्य में प्रशंसा होने लगी। एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन! मैं अब अपने घर जाउंगा, तुम भी तैयार हो जाओ। राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी। सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है। बहन ने अपने भाई से कहा, हे भइया! मैं तो चलूंगी मगर कोई बालक नहीं जायेगा। अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बताई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया। रानी बोली, हे प्रभो। ब्रहास्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान भी अवश्य देंगें। उसी रात ब्रहास्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा। उठ, सभी सोच त्याग दे। तेरी रानी गर्भवती है। राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई। नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ। तब राजा बोला, हे रानी! स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती। जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना। रानी ने हां कर दी। जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई। रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, जब भाई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल गई। उनके साथ न आई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुलाए आ गई। तो राजा की बहन बोली! मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती।
ब्रहास्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते है। जो सदभावनापूर्वक ब्रहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, ब्रहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है। जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामनाएं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की। अनजाने में भी ब्रहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें। ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है। इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये। हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये।